सामाजिक हितो में कार्यरत रियर एडमिरल ओम प्रकाश राणा, एवीएसएम, वीएसएम (से.नि.)

देहरादून:उत्तराखण्ड के सुदूर गाँव पिल्लू केदारघाटी रुद्रप्रयाग जनपद में 5 अगस्त 1959 को जन्मे रियर ओम प्रकाश सिंह राणा की पांचवी कक्षा की पढ़ाई गांव से, हाई स्कूल गणेशनगर से, 12वीं तक राजकीय इंटर कॉलेज कर्णप्रयाग, स्नातक और स्नातकोत्तर (1980) पीजी कॉलेज गोपेश्वर चमोली से प्राप्त की। तत्प्श्चात 1981 में संघ लोक सेवा आयोग से संयुक्त सुरक्षा परीक्षा पास कर नौ-सेना मे कमीशन प्राप्त किया। 36 सालों तक नौ-सेना को कार्यरत रह कर देश को अमूल्य सेवाएं दी और रियर एडमिरल/मेजर जनरल समकक्ष पद रेंक तक पहुंच पर डायरेक्टर जनरल नौ-सेना आयुध निरीक्षण के पद से 31 अगस्त 2017 को सेवा निवृत्त हुए।
नौ-सेना में विभिन्न पदों पर कार्यरत रह कर शस्त्रों के अनुसंधान, निर्माण, रखरखाव, गुणवत्ता, सुरक्षा मे आत्मनिर्भरता, मानव संसाधन प्रबंधन, प्रशासन तथा एक शिक्षक के रूप में सेना और आयुध निर्माणी के अधिकारियों और रक्षा अनुसंधान के वैज्ञानिकों को पढ़ाने का अवसर मिला। नौ-सेना में उनके उतकृष्ट कार्यों और सेवाओं के लिये एडमिरल राणा को महामहिम राष्ट्रपति जी द्वारा विशिष्ट सेवा मेडल और अति विशिष्ट सेवा मेडल पदकों द्वारा दो बार सम्मान किया गया है, जो कि हम सब उत्तराखण्डियों के लिये गर्व की बात है।
सेवा निवृत्ति के बाद, लगभग दो सालों तक ब्रह्मोश एयरोस्पेस में अपनी सेवायें देकर 220 एकड़ क्षेत्र मे ब्रह्मोश अति आधुनिक मिसाइल के उत्पादन और रख रखाव कारखाने की स्थापना में अपना बहुमूल्य योगदान किया। फिर अपने उत्तराखण्ड लोट कर पिछले चार सालों से अपनी मिट्टी, अपनों और सामाजिक हितों के कार्यों मे अपना योगदान हेतु प्रयास रत हैं।
वर्तमान में पिछले 4 सालों से राणा अपने शैक्षणिक, मोटिवेसन, शिक्षा का प्रयोगात्मक स्वरूप, चरित्र निर्माण, राष्ट्र सुरक्षा और समर्पण, केरियर काउंसलिंग, डिफेंस टेक्नोलोजी, स्वदेशीकरण & आत्मनिर्भरता, भारतीय इतिहास & संस्कार, आदि अनुभवों को स्कूलों, कोलेजों, विश्वविद्यालयों और वैज्ञानिक संस्थानों, आदि से साझा करना और पत्रिकाओं में संबंधित लेख लिखते हैं। इस प्रकार से उत्तराखण्ड में धरातलीय स्थल पर जन समुदाय से समपर्क तथा सामाजिक क्षेत्र में योगदान करते हैं।
राणा जी का मानना है कि मै इस मिट्टी से पढ़ लिख कर निकला हूँ और जन मानस के आशीर्वाद से नौ सेना में सर्व प्रथम एडमिरल रेंक तक पहुचने का गोरव प्राप्त हुआ है। गांव सड़क से लगभग 6 किलोमीटर दूर था और गांव में खेती/ जंगल का सारा काम करते और कालेज के लिये राशन अपनी पीठ पर ले जाते थे। इसलिये लगभग बचपन की पारिवारिक और अर्थिक कठिनाइयों ने प्रबंधन/ मेंनेजमेंट, दृढ़ विश्वास और धरातल पर काम करना और रहना सिखाया है। इसी परिप्रेक्ष्य में अपनी मिट्टी, अपनो तथा राष्ट्र के प्रति कर्ज का हमेशा आभास रहता है। इसीलिये सेवानिवृति के बाद से अपने समाज और युवा शक्ति से जुड़कर थोड़ा बहुत योगदान करने की कोशिस कर रहा हूँ।